" परिमल " की भूमिका में निराला जी ने लिखा है-
" मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्य की मुक्ति कर्म के बन्धन से छुटकारा पाना है और कविता मुक्त छन्दों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र। इसी तरह कविता का भी हाल है।"
मुक्त-छन्द भाषा की सहज ध्वन्यात्मक लयों पर आधारित एक पद्य रचना है। मुक्त छन्द का स्वरूप विवेचन करते हुये निराला जी ने लिखा है-
" मुक्त छन्द तो वह है जो छन्द की भूमि में रहकर भी मुक्त है। ...... मुक्त छन्द का समर्थक उसका प्रवाह ही है। वही उसे छन्द सिद्ध करता है..."
-( परिमल भूमिका, रचनावली, भाग-1, पृ०- 405)
मुक्त छन्द की व्याख्या करते हुये डा० नामवर सिंह ने लिखा है-
" अर्थ की दृष्टि से " मुक्त छन्द" शब्द के भीतर स्वतो व्याघात है। छन्द का अर्थ ही है बंधन, फिर मुक्त बंधन का क्या अर्थ...? .... मुक्त छन्द में छन्द के वाह्य आडम्बर तो नहीं हैं, परन्तु उसकी आत्मा में "लय" अवश्य है।"
-(छायावाद, नामवर सिंह, पृ०- 129 )
हिन्दी काव्य साहित्य में "छन्दोगुरु" निराला ही मुक्त छन्द के प्रवर्तक ठहरते हैं।"
-(निराला काव्य और व्यक्तित्त्व, धनंजय वर्मा, पृ०- 223 )
हिन्दी में सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों ही रूपों में "मुक्त छन्द" को प्रतिष्ठित करने का श्रेय निराला को है। उन्होंने परिमल की "भूमिका" के अतिरिक्त "जागरण" शीर्षक कविता में "मुक्त छन्द" कविता के स्वरूप की ही व्याख्या की है-
"अंलकार-लेश-रहित, श्लेष-हीन
शून्य विशेषणों से-
नग्न-नीलिमा सी व्यक्त
भाषा सुरक्षित वह वेदों में आज भी
मुक्त छन्द
सहज प्रकाशन है मन का-
निज भावों का प्रकट अकृत्रिम चित्र।"
-(जागरण, रचनावली भाग-1, पृ०-173 )
निराला के मुक्त छन्द सम-विषम चरणों में स्वाभाविक, स्वच्छन्द अन्त्यानुप्रास एक स्मरणीय विशेषता है। निराला की यह अन्त्यानुप्रास योजना उनके मुक्त छन्दों के लालित्य को बढ़ाती है। उन्हें छन्द बनाये रखती है, उन्हें नीरस गद्य होने से बचाती है। जैसे-
" दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुन्दरी परी-सी
धीरे, धीरे, धीरे
तिमिरांचल में चंचलता का कहीं नहीं आभास
मधुर मधुर हैं दोनों उसके अधर
किन्तु गम्भीर नहीं है उसमें हास विलास
हँसता है तो केवल तारा एक
गुँथा हुआ उन घुँघराले काले बालों से
हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक.."
-(संध्या सुन्दरी, रचनावली, भाग -1 पृ०- 65)
" मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्य की मुक्ति कर्म के बन्धन से छुटकारा पाना है और कविता मुक्त छन्दों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र। इसी तरह कविता का भी हाल है।"
मुक्त-छन्द भाषा की सहज ध्वन्यात्मक लयों पर आधारित एक पद्य रचना है। मुक्त छन्द का स्वरूप विवेचन करते हुये निराला जी ने लिखा है-
" मुक्त छन्द तो वह है जो छन्द की भूमि में रहकर भी मुक्त है। ...... मुक्त छन्द का समर्थक उसका प्रवाह ही है। वही उसे छन्द सिद्ध करता है..."
-( परिमल भूमिका, रचनावली, भाग-1, पृ०- 405)
मुक्त छन्द की व्याख्या करते हुये डा० नामवर सिंह ने लिखा है-
" अर्थ की दृष्टि से " मुक्त छन्द" शब्द के भीतर स्वतो व्याघात है। छन्द का अर्थ ही है बंधन, फिर मुक्त बंधन का क्या अर्थ...? .... मुक्त छन्द में छन्द के वाह्य आडम्बर तो नहीं हैं, परन्तु उसकी आत्मा में "लय" अवश्य है।"
-(छायावाद, नामवर सिंह, पृ०- 129 )
हिन्दी काव्य साहित्य में "छन्दोगुरु" निराला ही मुक्त छन्द के प्रवर्तक ठहरते हैं।"
-(निराला काव्य और व्यक्तित्त्व, धनंजय वर्मा, पृ०- 223 )
हिन्दी में सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों ही रूपों में "मुक्त छन्द" को प्रतिष्ठित करने का श्रेय निराला को है। उन्होंने परिमल की "भूमिका" के अतिरिक्त "जागरण" शीर्षक कविता में "मुक्त छन्द" कविता के स्वरूप की ही व्याख्या की है-
"अंलकार-लेश-रहित, श्लेष-हीन
शून्य विशेषणों से-
नग्न-नीलिमा सी व्यक्त
भाषा सुरक्षित वह वेदों में आज भी
मुक्त छन्द
सहज प्रकाशन है मन का-
निज भावों का प्रकट अकृत्रिम चित्र।"
-(जागरण, रचनावली भाग-1, पृ०-173 )
निराला के मुक्त छन्द सम-विषम चरणों में स्वाभाविक, स्वच्छन्द अन्त्यानुप्रास एक स्मरणीय विशेषता है। निराला की यह अन्त्यानुप्रास योजना उनके मुक्त छन्दों के लालित्य को बढ़ाती है। उन्हें छन्द बनाये रखती है, उन्हें नीरस गद्य होने से बचाती है। जैसे-
" दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुन्दरी परी-सी
धीरे, धीरे, धीरे
तिमिरांचल में चंचलता का कहीं नहीं आभास
मधुर मधुर हैं दोनों उसके अधर
किन्तु गम्भीर नहीं है उसमें हास विलास
हँसता है तो केवल तारा एक
गुँथा हुआ उन घुँघराले काले बालों से
हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक.."
-(संध्या सुन्दरी, रचनावली, भाग -1 पृ०- 65)