Monday, September 03, 2018

मुक्त छन्द

" परिमल " की भूमिका में निराला जी ने लिखा है-
" मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्य की मुक्ति कर्म के बन्धन से छुटकारा पाना है और कविता मुक्त छन्दों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र। इसी तरह कविता का भी हाल है।"

मुक्त-छन्द भाषा की सहज ध्वन्यात्मक लयों पर आधारित एक पद्य रचना है। मुक्त छन्द का स्वरूप विवेचन करते हुये निराला जी ने लिखा है-
" मुक्त छन्द तो वह है जो छन्द की भूमि में रहकर भी मुक्त है। ...... मुक्त छन्द का समर्थक उसका प्रवाह ही है। वही उसे छन्द सिद्ध करता है..."
-( परिमल भूमिका, रचनावली, भाग-1, पृ०- 405)

मुक्त छन्द की व्याख्या करते हुये डा० नामवर सिंह ने लिखा है-
" अर्थ की दृष्टि से " मुक्त छन्द" शब्द के भीतर स्वतो व्याघात है। छन्द का अर्थ ही है बंधन, फिर मुक्त बंधन का क्या अर्थ...? .... मुक्त छन्द में छन्द के वाह्य आडम्बर तो नहीं हैं, परन्तु उसकी आत्मा में "लय" अवश्य है।" 
-(छायावाद, नामवर सिंह, पृ०-  129 )

हिन्दी काव्य साहित्य में "छन्दोगुरु" निराला ही मुक्त छन्द के प्रवर्तक ठहरते हैं।"
  -(निराला काव्य और व्यक्तित्त्व, धनंजय वर्मा, पृ०- 223 ) 

हिन्दी में सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों ही रूपों में "मुक्त छन्द" को प्रतिष्ठित करने का श्रेय निराला को है। उन्होंने परिमल की "भूमिका" के अतिरिक्त "जागरण" शीर्षक कविता में "मुक्त छन्द" कविता के स्वरूप की ही व्याख्या की है-

"अंलकार-लेश-रहित, श्लेष-हीन
शून्य विशेषणों से-
नग्न-नीलिमा सी व्यक्त
भाषा सुरक्षित वह वेदों में आज भी
मुक्त छन्द
सहज प्रकाशन है मन का-
निज भावों का प्रकट अकृत्रिम चित्र।"
         -(जागरण, रचनावली भाग-1, पृ०-173 )

निराला के मुक्त छन्द सम-विषम चरणों में स्वाभाविक, स्वच्छन्द अन्त्यानुप्रास एक स्मरणीय विशेषता है। निराला की यह अन्त्यानुप्रास योजना उनके मुक्त छन्दों के लालित्य को बढ़ाती है। उन्हें छन्द बनाये रखती है, उन्हें नीरस गद्य होने से बचाती है। जैसे-

" दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुन्दरी परी-सी
धीरे, धीरे, धीरे
तिमिरांचल में चंचलता का कहीं नहीं आभास
मधुर मधुर हैं दोनों उसके अधर
किन्तु गम्भीर नहीं है उसमें हास विलास
हँसता है तो केवल तारा एक
गुँथा हुआ उन घुँघराले काले बालों से
हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक.."

      -(संध्या सुन्दरी, रचनावली, भाग -1 पृ०- 65)

Sunday, September 02, 2018

मुक्त छन्द

मुक्त छन्द में छन्द तो है लेकिन छन्द कौन सा रहेगा, उसमें कितनी मात्राएँ होंगी, कौन सी पंक्ति कितनी बड़ी या छोटी होगी.... यह सब निर्धारित करने के लिए रचनाकार स्वतंत्र है, मुक्त है किसी पारंम्परिक छन्द विधान से बँधा नहीं है.... यही मुक्त छन्द की विशेषता है..... हाँ रचनाकार जिस तरह के छन्द का प्रयोग रचना में करता है उसका निर्वाह उसे पूरी रचना में करना चाहिए... छन्द की यही मुक्ति रचना विशेष को सबसे अलग सबसे प्रभावी बना देती है..... इसीलिए नवगीत सबसे अलग दिखता है...... उसमें वह सब कुछ कहा जा सकता है जो रचनाकार कहना चाहता है.....
कुछ लोग मुक्त छन्द और छन्द मुक्त का अन्तर नहीं पता होता है और वे दोनों को एक ही मान लेते हैं, निराला जी ने छन्द को पारम्परिक बंधन से मुक्त करने की बात कही है, नवगीत "मुक्त छन्द" में रचा जाता है, भ्रमवश इसे भी कुछ लोग छन्द मुक्त कहते देखे जा सकते हैं।
छन्द मुक्त का आशय है जिसमें कोई छन्द न हो अर्थात् गद्य कविता लेकिन मुक्त छन्द का आशय है कि उसमें छन्द तो है, अनुशासन तो है परन्तु उसे मुक्त रखा जा सकता है, उसमें लय और प्रवाह आवश्यक है......

Thursday, July 05, 2012

दोहा छन्द


संस्कृत में अनुष्टुप, प्राकृत में गाथा तथा अपभ्रंश में दोहा छन्द अत्यधिक लोकप्रिय है। हिन्दी साहित्य में भी दोहा छन्द को ही सबसे अधिक अपनाया गया है।
हिन्दी को दोहा छन्द अपभ्रंश से मिला है, दोहा उत्तरकालीन अपभ्रंश का प्रमुख छन्द है। स्वयंभू के ‘पउम चरिय’ में दोहों का प्रयोग हुआ है। दोहे का सबसे पहले प्रयोग सिद्ध कवि सरहपा ( 9 वीं शताब्दी का प्रारम्भ) ने किया।
दोहा मुक्तक काव्य का प्रधान छन्द है। यह मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। प्रथम व तृतीय चरण में 13-13 मात्राएँ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं। इसके विषम चरणों के आदि में जगण ( लघु, गुरु, लघु ) नहीं होना चाहिए। दोहे के अन्त में लघु होता है। दोहा लोकसाहित्य का सबसे सरलतम छन्द है जिसे साहित्य में यश मिला।


-डा० जगदीश व्योम

घनाक्षरी छन्द


घनाक्षरी छन्द मुक्तक दण्डक कोटि में माना जाता है। इसे कवित्त तथा मनहरण के नाम से भी जाना जाता है। इसमें ३१ अक्षर होते हैं, १६ और १५ पर यति होती है। अन्त में गुरु होता है।
यह ब्रजभाषा का अपना छन्द है।  रीतिकाल का यह प्रचलित और योकप्रिय छन्द है। यह शृंगार और वीर रस का विशिष्ट छन्द है। इसे हिन्दी का राष्ट्रीय छन्द भी माना जा सकता है। सबसे पहले इसका प्रयोग सूरदास ने किया।
३१ वर्णों में प्रायः १६ और १५ पर यति परन्तु समस्त चरणों में ८ , ८ , ८ , ७ वर्णों के बाद यति का प्रयोग भी होता है, कभी-कभी शब्दों के बीच में भी यति पड़ती है तब ७ या ९ वर्णों पर यति प्रतीत होती है परन्तु लयानुसार यति का क्रम पहले जैसा ही रहता है। चरणान्त में मगण, रगण और सगण ही आ सकते हैं।
सम-विषम अक्षर-मैत्री का नियम भी अनिवार्य है। केवल वर्ण संख्या पूरी करने से छन्द की लय नहीं बन जाती। सम-वर्णिक शब्द के बाद सम-वर्णिक शब्द और विषम-वर्णिक शब्द के बाद विषम-वर्णिक शब्द का प्रयोग अनुकूल पड़ता है।
विषम वर्णिक शब्द - एक, तीन, पाँच वर्णों में पूर्ण होने वाले पद । 
  • सम-वर्णिक शब्द- दो, चार, छः वर्णों में पूर्ण होने वाले पद।


  • -डा० जगदीश व्योम


    Sunday, December 11, 2005

    मानोशी चटर्जी

    डॉ॰ जगदीश व्योम द्वारा बनाये गये केन्द्रीय विद्यालय प्र.का.का. होशंगाबाद के जालघर
    को देखकर मुझे अपना केन्द्रीय विद्यालय याद आ गया। 15 दिसम्बर 2005 को केन्द्रीय विद्यालय संगठन का स्थापना दिवस मनाया जा रहा है, इस अवसर पर मैं अपनी शुभकामनाएँ और बधाई समस्त केन्द्रीय विद्यालय संगठन परिवार को प्रेषित करती हूँ।
    -मानोशी, कनाडा

    प्रिय केन्द्रीय विद्यालय के साथियों !केन्द्रीय विद्यालय--भारत ही नहीं, भारत से दूर भी अपने विद्यार्थियों को सही राह दिखाता आगे बढ रहा है। हम सब बहुत भाग्यशाली हैं जो हमें इस महान शिक्षा संस्थान में खुद को निखारने का मौका मिला। मैं केन्द्रीय विद्यालय की छात्रा रही हूं। कक्षा 1 से कक्षा 12 वीं तक मेरी शिक्षा केन्द्रीय विद्यालय संख्या -1 बालको, कोरबा छत्तीसगढ में हुई। केन्द्रीय विद्यालय ने मुझे गढा है। आज मैं जो भी हूं, जितना भी मैं ने अब तक के जीवन में पाया है, उसका एक बहुत बडा श्रेय मैं इसी विद्यालय को दूंगी। केन्द्रीय विद्यालय सिर्फ़ पढाई लिखाई ही नहीं बल्कि अपने छात्रों की हर छुपी प्रतिभा को उभार कर उन्हें निखारने में मदद करता है। जीवन का कोई क्षेत्र हो, कितनी भी कठिन राह हो, केन्द्रीय विद्यालय पहले से ही अपने छात्र में वो सारी खूबियां भर देता है जो उसे जीवन की राह पर चलने में मदद करती हैं।
    सी.सी.ए कार्यक्रम द्वारा यहां पढ रहे विद्यार्थी की न सिर्फ़ पाठ्येतर प्रतिभायें उजागर होती हैं बल्कि, मंच पर आकर श्रोताओं को सामना करने का साहस, खुद को व्यक्त करने की क्षमता भी विकसित होती है। राष्ट्रभाषा का स्थान रखने वाली हमारी भाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार, इसकी उन्नति और इसे देश के अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में भी बोलचाल की भाषा बनाने में केन्द्रीय विद्यालय का बहुत बडा हाथ रहा है।
    सहशिक्षा के खुले वातावरण में बडे हो रहे बच्चों के मानसिक विकास और संतुलित व्यवहार को संवारने में इस विद्यालय की हमेशा से महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अगर मैं पीछे मुड कर देखूं तो इस विद्यालय के साथ मेरी जाने कितनी यादें जुडी हुई हैं मगर अभी यहां अपनी विद्यालय से संबंधित कुछ बातें आप सब के साथ बांटना चाहूंगी।
    कविता लिखने और गाने का शौक मुझे बचपन से ही रहा है। मगर इस शौक को बढाने और इसे पहचान दिलाने की कोशिश मेरे विद्यालय ने ही की थी सबसे पहले। मेरे स्कूल में हर सुबह की प्रार्थना सभा का आयोजन, हर सप्ताह एक हाउस का दायित्व होता था। मैं शिवाजी हाउस में थी। हमारे विद्यालय में समाचार/आज का विचार आदि के साथ ही हर दिन एक विशेष कार्यक्रम होता था। अगर सोमवार को समूह गान, तो मंगल को हाउस के किसी सदस्य द्वारा कविता पाठ, तो बुधवार को किसी खास विषय पर किसी छात्र द्वारा भाषण इत्यादि। उन सुबह के कार्यक्रमों में भाग लेने से न सिर्फ़ मुझमें सही तरीके से बोलने, दर्शकों का सामना करने की हिम्मत आई बल्कि आत्मविश्वास भी बहुत बढा। वो उम्र कुछ ऐसी थी कि देश या समाज की अच्छाइयां छोड, बुराइयां ज़्यादा दिखती थीं और उन बुराइयों को कविताओं के ज़रिये कह कर लगता था कि बहुत बडी बात कह दी। स्वाभाविक है मेरी कविताओं में भी उन्हीं बुराइयों का ज़िक्र ज़्यादा होता था। उन कविताओं को मैं उन सभाओं में या अन्य कार्यक्रमों के दौरान पढा करती थी। उन्हीं दिनों की बात है जब मुझे हमारे प्राचार्य श्री जे पी राइ ने समझाया था कि कविता में हमें कोशिश करनी चाहिये कि कोई उत्साहवर्धक बात हो, कोई पोसिटिव बात हो क्योंकि ये कविता किसी का मार्गदर्शन करने में, किसी के विचारों को सही रास्ता दिलाने में सक्षम होनी चाहिये। बुराइयां देखना बहुत आसान है मगर सुन्दरता, अच्छाई को देख कर, उसका अहसास होना व अपनी कृतियों में उन भावों का प्रतिवर्तन बहुत ज़रूरी है। केन्द्रीय विद्यालय संगठन की पत्रिका में ही मेरी कविता पहली बार छपी थी और उसके लिये मुझे २५ रुपये का पुरस्कार मिला था। कविता तो अब पूरी याद नहीं, मगर आखिरी की पंक्तियां अभी भी याद हैं।
    "कहें भले ही संतान तेरेवे नहीं तेरे बल्कि विदेशी चेरे पर इक दिन वे लौटेंगे घर को तेरेक्यों की मां तो बस एक यही हैऔर यही दुनिया की रीत रही है"
    कक्षा बारहवीं में मुझे युवा संसद ( यूथ पार्लियामेंट) में भाग लेने का मौका मिला। भुवनेश्वर में ये रीजनल स्तर पर प्रतियोगिता आयोजित की गयी थी और स्पीकर की भूमिका के लिये द्वितीय पुरस्कार मिला था मुझे। वो अनुभव भी अपने में एक था। उस प्रतियोगिता में भाग लेने से मुझे न सिर्फ़ संसद के सभी कार्यवाहियों की आद्योपांत जानकारी मिली बल्कि जीवन की राह में एक और मील का पत्थर साबित हुआ ये अनुभव। आज भी मेरे रेस्युमे में इस बात का उल्लेख करती हूं मैं। यही नहीं पाठयक्रम के तहत साइन्स के विभिन्न प्रोजेक्ट तैयार करना और उनको स्कूल के साइन्स एक्ज़िबिशन के दौरान प्रदर्शित करना भी एक रोमांचक अनुभव हुआ करता था। न सिर्फ़ हिन्दी या अंग्रेज़ी बल्कि हर क्षेत्र में पारंगत कर देता है ये विद्यालय। केन्द्रीय विद्यालय का पाठ्यक्रम विद्यार्थी को देश विदेश में समान रूप से अपने कार्यक्षेत्र में आगे बढने में पूरी तरह मदद करता है। मैने भारत में ही नहीं बल्कि साउदी अरब से लेकर कनाडा में एक शिक्षिका के रूप में काम किया है मगर मुझे कहीं कोई परेशानी नहीं हुई। मैं इसका एक बहुत बडा श्रेय केन्द्रीय विद्यालय के पाठ्यक्रम, और उसके अपने विद्यार्थियों को तैयार करने की सही कोशिश को देना चाहूंगी। ये ज़रूरी नहीं कि हर विद्यार्थी अपनी कक्षा में प्रथम स्थान लाये मगर इस विद्यालय की यही खूबी है कि वो छात्रों में उनके छुपे गुणों को पहचान कर उन्हें तराशने और सही दिशा दिखाने में मदद करता है। और ज़्यादा समय न लेते हुये मैं यही कहना चाहूंगी कि, हम सब बहुत भाग्यशाली हैं जो केन्द्रीय विद्यालय में पढे हैं या पढ रहे हैं। अभी शायद आप लोगों को इसका अहसास उतना न हो मगर आगे चल कर मेरी इस बात का मतलब आपको सही मायनों में समझ में आयेगा, मुझे इसका यकीन है। आप सब को मेरी तरफ़ से एक सुंदर भविष्य के लिये शुभकामनायें ।
    ***

    -मानोशी चटर्जी
    British Columbia
    canada

    Friday, August 19, 2005

    प्रतिक्रिया

    प्रतिक्रिया